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आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार

रवांडा-नरसंहार

हमने अब तक कई दिल-दहलाने वाली घटनाओं के बारे में सुना है। फिर बात चाहे जलियावाले बाग की हो या फिर कश्मीरी हिंदुओं का होने वाला नरसंहार। लेकिन जब रवांडा नरसंहार की तस्वीर हम इस खाचे में डालते हैं, तो धवलता उक्त घटनाओं की कम हो जाती है। शायद ही मानव जाति ने इससे कुरूप धब्बा अपने इतिहास में लगा हुआ देखा हो। आठ लाख तुत्सी समुदाय से जुड़े लोगों का कत्लेआम तत्कालीन रवांडा सरकार ने योजनाबद्ध ढंग से करवाया था। इस घटना ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था। मानवता अपने ऊपर शर्मशार थी। रवांडा नरसंहार एक करारा तमाचा है उन उदारवादी और मानवाधिकारी संगठनों पर जो मानवता और जनाधिकारों की आंच पर अपनी रोटी सेंकते हैं।


रवांडा नरसंहार के पीछे की कहानी?

अफ्रिका महाद्वीप में एक छोटा सा देश है रवांडा। लम्बे समय से यहां पर हूतू और तुत्सी समुदाय के लोग रहते आ रहें थें। एतिहासिक दृष्टी से देखें तो दोनों समुदाय के बीच कोई बड़ा विभेद नहीं था। दोनों का रहन सहन एक जैसा था। सांस्कृतिक समानता एक जैसी थी। भाषा दोनों की एक थी। केवल एक छोटा सा विभेद था। तुत्सी खेती करते थे और हूतू चरवाहे थे। 

1959 से पहले रवांडा के राजतांत्रिक व्यवस्था में  तुत्सी अल्पसंख्यक समुदाय का दबदबा था। इस व्यवस्था को हूतू समुदाय के लोगों ने हिंसात्मक ढंग से 1959 में उखाड़ फेका। वह स्वंय सत्ता में आ गए। इस कारण हजारों तुत्सियों को अपनी जान बचाकर पड़ोस के देशों में शरण लेनी पड़ी। इसके बाद दौर आता 1990 का। पड़ोसी देशों में शरण लिए तुत्सी लोगों ने रवांडा पेट्रियोटिक फ्रंट का गठन किया। इनका उद्देश्य अपनी खोई हुई पहचान को दोबारा पाना था। इस कारण 90 के दौर में रवांडा के भीतर कई सारे संघर्ष जन्म ले रहें थें। 1993 में कुछ देशों की मध्यस्थता के बीच यह संघर्ष शांति समझौते के साथ खत्म किया गया।            

दोनों ही समुदाय के बीच असंतोष और संघर्ष की स्थिति रह रह कर जन्म ले रहीं थीं। तभी एक उत्प्रेरक वाक्या हुआ। 6 अप्रैल 1994 को रवांडा के तत्कालीन राष्ट्रपति जुवेनल हाबयारिमाना और बुरूंडी के राष्ट्रपति केपरियल जिस विमान में सफर कर रहें थें। उसे किगाली में मिसाइल द्वारा गिरा दिया गया। दोनों ही राष्ट्रपतियों की तात्कालिक मृत्यु हो गई। गौरतलब बात है कि दोनों राष्ट्रपति हूतू थे। इस कारण हूतू अतिवादियों ने दोनों की हत्याओं का दोषी तुत्सी लोगों को ठहराया। कई देशों जैसे की बेल्जियम का मानना है कि दोनों राष्ट्रपतियों की हत्या हुतू अतिवादियों ने करवाई थी। ताकि इसका सहारा लेकर देश में हूतु लोगों को तुत्सी लोगों के खिलाफ भड़काया जा सके। हुआ भी कुछ ऐसा ही। शायद इससे भी भयानक!


सरकार ने योजनाबद्ध ढंग से करवाया नरसंहार

अब शुरू होती नरसंहार की कहानी। इसके बाद सरकार ने अलोचना कर रहे लोगों और उनके परिवारों को मरवाना शुरू किया। पूरे देश में योजनाबद्ध ढंग से हूतु लोगों को तुत्शी के विरुद्ध उकसाने की शुरुवात हो चुकी थी। रेडियो पर सरकार कहती तुत्सी लोग तिलचट्टे हैं। इन्हें साफ करो। देखते ही देखते 1994 के अप्रैल माह में यह नरसंहार ने रफ्तार पकड़ ली। लोग असले, कुल्हाड़ी, चक्कू, बंदूख जो कुछ भी मिलता उसके सहारे तुत्सी को मारते। पड़ोसियों ने पड़ोसियों को मारा। स्कूल अध्यापको ने अपने छात्रों का खुलेआम नरसंहार कर दिया। हूतु पादरियों ने चर्च के भीतर ही तुत्सी लोगों को मौत के घाट उतार दिया। लोग कुछ नहीं देख रहे थे। हूतू जिंदाबाद, हूतू सर्वश्रेष्ठ के नारे रवांडा की हर गलियों के भीतर लग रहे थे। दस साल के बच्चों के हाथ में बंदूख और असले देखने को मिल रहे थे। जो कोई तुत्सी मिलता उसे मार दिया जाता। 

इतिहास में शायद ही इतनी वीभत्स घटना कभी हुई हो, जब पड़ोसी ही पड़ोसी का गला असले और कुल्हाड़ी से काट रहे थे। आंख के आगे सामुदायिक राष्ट्रवादी भावना की चकाचौंध थी, तो क्या बच्चे? और क्या बूढ़े? किसी को नहीं बख्शा गया। लाशों के अम्बार चौतरफा बिखरे हुए थे। हजारों तुत्सी महिलाओं को जबरन बंधक बना कर उनका योन शोषण किया गया। गली कूंचों में हूतू जिंदाबाद! हूतू जिंदाबाद के नारे लगाते बच्चे, बूढ़ों, जवान, औरत और सेनाओं की गस्त लग रही थी। सामुदायिक राष्ट्रवाद का ऐसा अंधापन शायद ही कहीं देखा गया हो।


नरसंहार को रोकने के लिए यु एन ने नहीं कि मदद

गौरतलब बात है, बड़े बड़े मंचों पर मानवाधिकारों की बात करने वाले तमाम तथाकथित संगठन इस दौरान चुप्पी साधे बैठे थे। वैश्विक शांति का परिचायक यूनाइटेड नेशन ने इस दौरान कुछ नहीं किया। यही एक बड़ा कारण रहा जिसके चलते नरसंहार 100 दिनों से भी ज्यादा चला। आधिकारिक आंकड़ों की माने तो आठलाख लोगों की जाने गईं। वहीं गैराधिकारिक रिपोर्ट्स को देखें तो यह संख्या 12 लाख के पार थी। इतिहास में शायद इतनी क्रूरतम घटना कभी हुई हो। घटना ने मानव अधिकारों की आंच पर रोटी सेकने वाले उन सभी वैश्विक मंचों के दोगले चेहरे को उजागर किया जो इस दौरान शांत बैठे थे। नरसंहार से बचने के लिए जब कई तुत्सी लोगों ने एक स्कूल की ओर पलायन किया जहां यू एन की पीस कीपिंग फ़ोर्स तैनात थी। उनको शरण देने की बजाए यू एन की फ़ोर्स उन्हें मरता छोड़ कर चली गयी।


100 दिनों तक चलता रहा नरसंहार

यह नरसंहार लगभग 100 दिनों तक चला। इसमें 8 लाख तुत्सी लोगों की जान गईं। इसके अलावा कई ऐसे हूतू लोगों का भी नरसंहार किया गया, जिन्होंने तुत्सियों की जान बचाने की कोशिश की। अंततः 100 दिनों तक चले इस नरसंहार पर धीरे धीरे काबू पाया गया। युगांडा सेना की सहायता से आरपीएफ ने इस नरसंहार को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आरपीएफ ने बदले की कार्रवाई में हजारों हूतू लोगों को मौत के घाट उतारा। इस कारण 20 लाख से भी ज्यादा हूतू ने डर के कारण पड़ोसी दशों डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, तंजानिया और बुरुंडी में पलायन किया। 

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