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मैं गांधी का साथ नहीं छोड़ सकता

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महात्मा गांधी
ऐसा कहना पूरी तरह सच तो नहीं कि आजकल ही गांधी पर सुनियोजित तरीके से हमला हो रहा है। क्योंकि हमले गांधी के जीवित रहने के दौर में शुरू हो गए थे और जीवन भर चले। वैचारिक हमला हो यहां तक तो बात फिर भी समझ आती है पर बंदूक की गोली से हमला! पर आज गांधी शरीर रूप में हमारे बीच नहीं हैं। इसलिए अब जो भी हमला है वह उनके चरित्र पर है। ये कहना बिल्कुल ठीक है कि इस समय उनके चरित्र पर हमले अधिक हो रहे हैं और इस कु-कृत्य में फेसबुक,व्हाट्सएप, यूट्यूब और ट्विटर का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है।
अक्सर जो आरोप गांधी पर लगते हैं वो यूँ हैं- गांधी अहिंसा-अहिंसा करते रहे और अंग्रेजों से निर्दोष भारतीयों को मरवाते रहे, जीवन में कभी एक भी लाठी नहीं खाई, क्रांतिकारियों जैसे भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस का साथ नहीं दिया, सशस्त्र आंदोलन का साथ नहीं दिया,अहिंसा के नाम पर उन्होंने देश को नपुंसक बनाया,उन्हें देश की परिस्थितियों का ज्ञान नहीं था, औरतों के साथ नग्न सो कर ब्रह्मचर्य का प्रयोग कर रहे थे,कहा कि मेरी लाश पर देश बंटवारा होगा पर बंटवारा हो गया और खुद जिंदा रहे... आदि। एक दो बातें जो गौर करने की हैं वो ये कि इन सब बातों के बीच गांधी के प्रति कोई आदर सूचक शब्दावली नहीं रहती। गांधी जी के लिए 'वो ऐसा था' , 'उसे ये नहीं पता था', 'वो ये सब जानबूझकर कर रहा था' का ही प्रयोग होता है। तुर्रा ये कि ये सब भारतीय संस्कृति के बचाव के लिए खड़े होने वाले लोग हैं और गांधी भारत विरोधी,अंग्रेजों के एजेंट। इनकी एक बड़ी चिंता या आरोप यह भी है कि आजादी के बाद केवल गांधी-नेहरू को पढ़ाया गया और किसी को नहीं। गांधी  के विचारों से ही परिचित कराया गया और किसी के विचारों से नहीं।

मैं कहता हूं कि अगर ठीक से पढ़ाया ही गया होता तो आप गांधी नामक उस नींव पर हमला नहीं करते। आपकी समस्या यह है कि आप किसी और को- चाहे वो सुभाष-भगत-पटेल हो या कोई और - बड़ा दिखाने के लिए किसी दूसरे को छोटा या कमतर दिखाए बिना रह नहीं सकते।
आप गांधी पर जो आरोप लगाते हैं उन्हीं आरोपों के आईने में यदि अन्य महापुरुषों को देखने की कोशिश करें तो देखिये स्थिति कुछ ऐसी होगी जिसमें कहा तो यह भी जा सकता है कि बुद्ध और उनकी अहिंसा की वजह से यह देश कमज़ोर हुआ और बाहरी आक्रमणों का उत्तर नहीं दे पाया। पर बुद्ध तो भगवान विष्णु के अवतार हैं न? फिर भी उन्होंने इस देश को कमजोर बनाया। बुद्ध और महावीर किसके एजेंट थे?विवेकानंद किसके एजेंट थे जो लोगों को धर्म और आध्यात्मिक बातों में उलझाए रहे और सशस्त्र आंदोलन नहीं छेड़ा? रामानुजन किसके एजेंट थे जो गणित और दुनिया की पहेली सुलझा रहे थे जब देश को गुलामी की जंजीर पिघलानी थी? 

रवींद्रनाथ ठाकुर क्या कर रहे थे बंगाल में?कविता और उपन्यास क्यों रच रहे थे? तलवार लेकर क्यों नहीं कूद पड़े अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़? क्यों अपने शांतिनिकेतन में अंग्रेज़ो को भी पढ़ने दिया? किसके इशारे पर कर रहे थे वो? कहीं शांतिनिकेतन में अंग्रेजों के साथ मिलकर कोई षडयंत्र तो नहीं कर रहे थे?प्रेमचन्द कहानी और उपन्यास लिखकर कौन सी घास खोद रहे थे?

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला "वरदे वीणा वादिनी" गा रहे थे। गाने से स्वन्त्रता मिलती है कि तलवार और बंदूक उठाने से? कहीं वह देश के नौजवानों को इन गीतों में उलझाए तो नहीं रखना चाहते थे ताकि अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह न हो? 
कहीं ये सब मिलकर देश की जनता को,युवाओं को नपुंसक तो नहीं बना रहे थे कला विज्ञान धर्म और साहित्य में उलझा कर ताकि अंग्रेजों का राज बना रहे?

तो क्या अब इस प्रकार से महापुरुषों का मूल्यांकन होगा कि जिसने तलवार और बंदूक उठाई केवल वो स्वतंत्रता सेनानी और अन्य सब अंग्रेजों के एजेंट ?
जो लोग गांधी का समर्थन करते हैं वो यह नहीं कहते कि मूल्यों और सिद्धांतों को लेकर चलने वाले भारतीय परम्परा में एक मात्र गांधी ही हैं। भारतभूमि बांझ नहीं है। वह अपने लाल पैदा करती रहती है।

गांधी के समर्थन में जो बात की जाती है वह उनके समय और उस समय की परिस्थितियों के मद्देनजर की जाती है। साथ ही एक अन्य द्वंद या दुविधा यह भी कि उन्हीं परिस्थितियों के बीच मूल्यों को बचाये रखना है। यह कोई खेल नहीं था। इसके लिए अपार धैर्य चाहिए, सहने और समझने की शक्ति चाहिए। 

कम्युनिस्ट उनका विरोध करते हुए कहते हैं ये तो धार्मिक व्यक्ति है  और 'वैष्णव जन' गाता है,राम राज्य की इच्छा रखता है,हिंदुओं के सारे प्रतीक लेकर बात करता है। बौद्धों और जैनों की तरह सत्य,अहिंसा,अपरिग्रह,क्षमा,दया की बात करता है। पर साम्यवाद तक पहुँचने के लिए तो हिंसा होगी ही। 

दक्षिण पंथी हिन्दूवादी(हिन्दूपन नहीं) कहते हैं कि ये ईश्वर को अल्लाह से मिलाता है,जिन्ना से भी बात करता है,मुसलमानों का साथ देता है इसलिए हिन्दू विरोधी है।
मुसलमान कहते हैं ये तो हिंदुओं का सन्त है और उन्हीं का साथ देता है हमारी नहीं सुनता।

दलितवादी कहते हैं इसने हमको हरिजन(ईश्वर के लोग,सन्तान) क्यों कहा। ये तो हमको भुलावे में रखना चाहता है,वे स्वयं के लिए दलित और अछूत शब्द स्वीकार करते हैं हरिजन नहीं। कहते हैं ये आदमी तो उच्च वर्णों का नेता है,वर्ण व्यवस्था की वकालत करता है।

रवींद्रनाथ टैगोर से उनकी राष्ट्रवाद पर गहन वैचारिक संवाद हुआ। जिसमें दोनों का मत अलग-अलग है। जिस गांधी को देश के खिलाफ खड़ा बोला जाता है इस बहस में वो राष्ट्रवाद की तरफ़ हैं(राष्ट्रवाद का उनका अपना अर्थ और तरीका है) और रवींद्रनाथ अंतरराष्ट्रीयतावाद की तरफ हैं।

जो गांधी के साथ खड़े हैं उनकी समस्या या मजबूरी है कि वे इन तथ्यों को अनदेखा नहीं कर सकते। उनको तो दिखता है कि गांधी कितने मोर्चों पर एक साथ खड़ें हैं।
हुआ यह है कि गांधी के विरोधियों द्वारा गांधी को न तो समझा गया और न उनकी बात मानी गयी। जिसका परिणाम था कि बंटवारा हुआ।तो क्या गांधी इससे अंग्रेजों के एजेंट हो जाते हैं। ज़रा पीछे चलते हैं। महाभारत काल में बात तो वेद व्यास की भी नहीं मानी गई थी।क्या लिखते हैं वो महाभारत के अंत में- 'मैंने सबको इतना समझाया पर कोई मेरी सुनता नहीं है।' युधिष्ठिर क्या कहते हैं- 'जैसे कुत्ते माँस के टुकड़े के लिए लड़ते हैं वैसे ही हम जमीन के टुकड़े के लिए लड़े।'
 वेद व्यास और युधिष्ठिर के न चाहते हुए भी युद्ध हुआ,लाखों मरे,औरते विधवा हुई,माताओं की कोख उजड़ी। गांधी और उनकी तरह की एक विशाल जनसंख्या बंटवारे के पक्ष में नहीं थी। पर बंटवारा हुआ। इंसान और इंसानियत का क़त्ल हुआ।

ब्रह्मचर्य की परीक्षा वाला जो प्रकरण है उसके लिए हमें इतना तो कहना पड़ेगा कि इस आदमी में इतना तो नैतिक साहस है कि यदि ये सत्य की राह पर चलने वाला है तो इसने अपने जीवन का वो सत्य भी बताया जिसे छुपा सकता था। सम्भवतः इसी लिए गांधी के हत्यारे गोडसे ने न्यायालय में कहा था कि 'इस आदमी को नैतिक स्तर पर पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए इसके शरीर का अंत करना ही एक मात्र रास्ता बचता था।' लेकिन गांधी ने ये बात लिख दी और बरी हो गए ऐसा नहीं। गांधी अपने वैयक्तिक प्रयोग के लिए उन स्त्रियों को शामिल क्यों करते हैं। गांधी ने तो लिख दिया कि मेरे ब्रह्मचर्य की परीक्षा थी वह घटना। मगर उन स्त्रियों का पक्ष कौन रखेगा? उस परिस्थिति में उनपर क्या गुजरी होगी। गांधी के राजनीतिक और सामाजिक प्रयोग एक तरफ़ हैं मगर इस वैयक्तिक प्रयोग के लिए तो उनपर प्रश्न उठेंगे।

लेकिन क्या इस मानवीय कमजोरी या गलती या इस ब्रह्मचर्य के प्रयोग की जो विधि गाँधी ने अपनायी उसके कारण हम उनके योगदान को ख़ारिज कर दें? गलती किससे नहीं होती है?ज़ाहिर है कि मनुष्य होने के नाते सब में कमजोरियां हैं,गांंधी में भी रही। तो क्या राम में नहीं रही।  राम तो ईश्वर हैं।क्या कहते हैं जब सीता  धरती में समा जाती हैं-'अभी मेरी सीता को वापिस करो नहीं तो ऐसा तीर मारूंगा की समस्त धरती-आकाश-पाताल नष्ट हो जाएगा।' इसे मानवीय कमजोरी भी कह सकते हैं और असमर्थता भी कि पत्नी प्रेम में उन्होंने वह कह दिया जो उनको शोभा नहीं देता । ब्रह्मा याद दिलाते हैं कि प्रभु आप ईश्वर हैं,थोड़ा इसकी तो मर्यादा रखिए।
तो क्या राम की द्वारा की गई इस मर्यादाहीन बात के लिए हम राम का साथ छोड़ दें,उनके पीछे चलना छोड़ दें। आप तो राम भक्त और संस्कृति के पोषक हैं। कृष्ण ने क्या अपने जीवन में ग़लतियाँ नहीं की हैं। तो क्या हम उनको चाहना छोड़ दें। जो छोड़ना चाहे वो छोड़े,पर मनुष्य को उसकी सम्पूर्णता में स्वीकारने वाला व्यक्ति नहीं छोड़ सकता है। बिल्कुल यही बात गांधी के संदर्भ में है। मैं उनका साथ नहीं छोड़ सकता क्योंकि मैं भारत का,उसकी सनातनता का,वर्षों की तपस्या से अर्जित मूल्यों का साथ  नहीं छोड़ सकता। वह मूल्य है क्या? वह मूल्य है- 'सर्वभूत हितेरताः'। 

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गांधी के सम्बंध में बात करते हुए इस लेख से मैंने मानवीय मूल्यों और उसके आत्मिक आधारों की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न किया है। उन मूल्यों का क्या असर हुआ,हुआ भी कि नहीं इस पर भी चर्चा हो सकती है। मगर वो बात फिर तथ्यों पर अधिक होगी। लेकिन तथ्य कई बार मूल्यों से विपरीत दिशा में चलते हैं और इससे मूल्यों की बात पीछे छूट जाती है। इसलिए कुँवर नारायण कहते हैं कि-'तथ्यों' को लेकर बहस 'मूल्यों' पर बहस को घपले में डाल देती है।


मैं-गांधी-का-साथ-नहीं-छोड़-सकता
महात्मा गांधी अपने सहयोगियों के साथ

जो लोग तथ्यों की तोड़-मरोड़,उठा-पटक द्वारा तात्कालिक फायदों के लिए मनुष्य द्वारा अर्जित मूल्यों को छोड़ देना चाहते हैं उनसे फिर क्या ही उम्मीद की जाए। तथ्यों की आड़ में मूल्यों से भागने वालों से प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों में इतना ही कहा जा सकता है कि - 'स्मृति(इस लेख के मद्देनजर आप स्मृति का अर्थ तथ्य/फैक्ट लगा सकते हैं) हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। हम क्या याद रखना चाहते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि भविष्य की हमारी कल्पना कैसी है। हम कैसा भविष्य चाहते हैं।'

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3 टिप्पणियाँ

  1. सचिन शानदार और जानदार चिंतन के लिए बधाई। सोशल मीडिया की बहस प्रभावित कर रही हैं । इसमें संदेह नहीं है। पर,इनकी संदिग्धता भी बरकरार है। यह जानना बहुत आवश्यक है कि यह बात कर कौन रहा है। आज बहुत सी ऐसी चीजें चल रही हैं जिनके सिर पैर पता नहीं होते।बातें चल पडती हैं। विषय की गंभीरता को देखते हुए कुछ तथ्यों के प्रमाण प्रस्तुत किए जाएं तो यह सनद रहे कि कहने वाले का अस्तित्व क्या है। बहरहाल बधाई।

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