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टी.आर.पी के नशे में मदहोश पत्रकारिता

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मीडिया गिद्धों की भांति

मीडिया का इस्तेमाल कैसे करना है? इसे वर्तमान सरकार और कॉरपोरेट जगत से ज्यादा अच्छा कोई और नहीं जानता होगा। जिस पत्रकारिता का किसी समय देश के भीतर एक अच्छा रुतबा था। आज वह सरकार और कॉर्पोरेट घरानों के समक्ष वैश्यावृती कर रही है। पिछले साल के फरवरी माह की बात है, जब पुलवामा में हुए फिदायीन हमले के जवाब में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के बालाकोट पर एयर स्ट्राइक किया था। उसके अगले ही दिन तमाम न्यूज चैंनलों और समाचार पत्रों ने बिना किसी तथ्य और प्रमाण के खबरें दिखानी शुरू कर दी। किसी ने बताया कि 250 आतंकवादी ढेर हुए हैं, तो किसी ने 300। बकायदा उन आतंकवादियों के नाम का जिक्र हो रहा था, जिनकी इन एयर स्ट्राइक में जाने गईं। यह भी खुलासा हुआ कि  हवाई हमले में जैश ए मोहम्मद के कई आतंकवादी ढेर हुए। तस्वीरें साफ होने लगीं पता चला कि मीडिया द्वारा की जा रहीं सब बातें हवा हवाई थी। मीडिया के पास कोई भी पुख्ता सबूत नहीं था, जिसके बल पर वह यह बातें कर रहा था। मतलब साफ था, एक एजेंडे के तहत झूठी तस्वीर आम जनमानस के बीच उतारी जा रही थी।

वहीं पिछले कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में भाग नहीं लिया। पिछले साल दोबारा प्रधानमंत्री नियुक्त होने से पहले उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया। इसमे अमित शाह ने पहले से रटी रटाई बातें पत्रकारों के समक्ष भाषण के रूप में सुनाई। कहने को प्रेस कॉन्फ्रेंस थी। पर प्रेस कॉन्फेंस जैसा कुछ था नहीं। 

मोदी कार्यकाल में देश के चुनिंदा न्यूज चैनल्स और समाचार पत्रों ने सरकार का मुखपत्र के रूप में कार्य किया है। प्राइम टाइम से लेकर समाचार पत्रों के मुखपृष्ठ को खोल कर देखिए। कहीं पर भी आपको जनसरोकार के मुद्दे नहीं देखने को मिलेंगे। सरकार से न कोई प्रश्न पूछा जा रहा है। और न ही किसी प्रकार की जवाबदेही के लिए न्यूज चैनल्स उसे घेर रहें हैं। 

कबीर उलटबांसी थे। यहां आज देश के मुख्यधारा की मीडिया उलटबांशी हो चली है। सरकार की नाकामयाबियों को भी कामयाबी में गिना रही है। भारत की 70 फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में वाश करती है। जिसकी कोई खोज और खबर में हमें आज देश की मुख्य न्यूज चैनल्स और समाचार पत्रों में नहीं देखने को मिल रही है। सरकार द्वारा विभिन्न योजनाएं चलाई जा रहीं है। उनका जमीनी स्तर पर क्या हाल है। इससे उसे कोई लेना देना नहीं है। 

चैनलों की बड़ी बड़ी डिबेटों में सरकार के प्रवक्ताओं पर कैमरे के लेंस ज्यादा गड़े रहतें हैं। वॉल्यूम उनका तेज कानों में सुनाई देता है। विपक्ष जैसे ही बोलने की कोशिश करता है, उसे डाट कर चुप कर दिया जाता है। वह तब भी नहीं मानता तो उसे जयचंद जैसी उपाधि से नवाजा जाता है। और ये सब होता है निष्पक्षता के नाम पर। जी हां आपने सही सुना निष्पक्षता के नाम पर। 

पर्यावरण, विकास, गाँव-देहात, रोजगार तो पुराने विषय हो चुके हैं। मीडिया तो अब लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के दरार में टी.आर.पी का ड्रग्स भर के ले रही है। उसे कहाँ फिक्र इन सब विषयों की। वह तो रिया और कंगना में मदहोश है। हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार कृष्णा प्रसाद ने कहा कि 'इस समय भारतीय पत्रकारिता अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। यह बुरा दौर इमरजेंसी के समय से भी ज्यादा भयावह है। मौजूदा वक़्त में पत्रकारिता तीन बड़ी समस्याओं का सामना कर रही है। पहली है मुख्य मूद्दो से ध्यान भटका कर बेतुके विषयों पर जनता का ध्यान केंद्रित करना। दूसरा, जनता को साम्प्रदायिक आधार पर बाटना। और तीसरा, अंधविश्वास और रूढ़िवाद को समाज में परोसना।' 

हाल ही में वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम सूचकांक जारी किया गया। इस सूची में शीर्ष 10 देशों में ज्यादातर देश सकेंडिनेवियन थे। भारत का स्थान इसमें 142वां था। लोकतंत्र की बुनियाद अभिव्यक्ति की आज़ादी पर होती है। यह सूचकांक उस आज़ादी की एक दूसरी तस्वीर को बयां कर रहा है। जमीनी स्तर से जो पत्रकार सच्चाई को सामने लेकर आ रहें हैं। उनपर गलघोंटू कानून यू.ए.पी.ए लगा कर जेल में डाला जा रहा है।  सरकार के पिछले कार्यकाल के दौरान 40 पत्रकारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। वहीं 200 से ज्यादा पत्रकारों पर गंभीर हमले हुए। पर अभी स्थिति उतनी भयावह नहीं हुई है। इस अंधियारे में एक बड़ा हिस्सा उजाले से भी भरा है। वह है डिजिटल मीडिया। यहां पर कई सारे चैनल्स खुलकर सरकार की आलोचना कर रहें हैं। खुलकर सवाल पूछे जा रहें हैं। 

देश के विकास के लिए जरूरी है सरकार का जवाबदेह होना। पर भारत में इसकी उलटी तस्वीर देखने को मिल रही है। मीडिया का दुरुपयोग कर वर्तमान सरकार देश में साम्प्रदायिक और विचारधारात्मक स्तर पर ध्रुवीकरण कर रही है। इस कारण देश की जनता के मध्य विभेद, घृणा और वैमनस्य जन्म ले रहा है। देश में कलह और संप्रदायिक्तक का उबाल आ रहा है। जिंगोइज्म की धुन पर लोग नाच रहें है। फलस्वरूप दंगे, मोबलिंचिंग, साम्प्रदायिक गाली-गलौज देखने को मिल रहें हैं। बुनियादी मूद्दो पर कोई बहस नहीं है। वह एक दलित की भांति हाशिये पर पड़ा है। तमाम सोशल मीडिया के अखाड़ों में हर कोई पहलवान बना बैठा है। भक्त बनाम पप्पू की कुश्ती चल रही है। ये सूरतेहाल इस समय देश का है। पर उम्मीद करता हूं कि ये जो घाव भारत की संप्रभुता, अखंडता, एकता, विविधता और लोकतंत्र पर हुआ है। वह जल्द ही ठीक होगा।

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